इंसपेक्टर मोहन देशपांडे अदालत से बाहर निकल रहे थे तो उन के साथ चल रही आशु हाथ हिलाहिला कर कह रही थी, ‘‘मैं बिलकुल नहीं मान सकती. भले ही अदालत ने उसे बेगुनाह मान कर बाइज्जत बरी कर दिया है, लेकिन मेरी नजरों में जनार्दन हत्यारा है. वही पत्नी का कातिल है. यह दुर्घटना नहीं, बल्कि जानबूझ कर किया गया कत्ल था और इसे अचानक हुई दुर्घटना का रूप दे दिया गया था.’’

‘‘लेकिन शक की कोई वजह तो होनी चाहिए,’’ मोहन देशपांडे ने आगे बढ़ते हुए कहा, ‘‘हम ख्वाहमख्वाह किसी पर आरोप तो नहीं लगा सकते. अदालत ठोस सबूत मांगती है, सिर्फ हवा में तीर चलाने से काम नहीं चलता.’’

‘‘जनार्दन ने अपनी पत्नी का कत्ल किया है. यह सच है.’’ आशु ने चलते हुए मुंह फेर कर कहा, ‘‘इस में शक की जरा भी गुंजाइश नहीं है.’’

‘‘अच्छा, अब इस बात को छोड़ो और कोई दूसरी बात करो.’’ मोहन ने कहा, ‘‘कई अदालत उसे रिहा कर चुकी है.’’

‘‘मेरी बात मानो,’’ आशु ने कहा, ‘‘जनार्दन को भागने मत दो. वह वाकई मुजरिम है. अगर वह हाथ से निकल गया तो तुम सारी जिंदगी पछताते रहोगे.’’

‘‘आखिर तुम मेरा मूड क्यों खराब कर रही हो?’’ इंसपेक्टर मोहन ने नाराज होते हुए कहा, ‘‘मैं ने सोचा था कि अदालत से फुरसत पाते ही हम कहीं घूमनेफिरने चलेंगे, जबकि तुम फिर जनार्दन आगरकर का किस्सा ले बैठीं. मुझे लगता है, इस घटना ने तुम्हारे दिलोदिमाग पर गहरा असर डाला है?’’

‘‘हां, शायद तुम ठीक कह रहे हो,’’  आशु ने कहा.

उस समय उस की नजरें एक ऐसे आदमी पर जमी थीं, जो लिफ्ट से बाहर निकल रहा था. वही जनार्दन आगरकर था. मोहन देशपांडे भी उसे ही देख रहा था. आशु तेजी से उस की ओर बढ़ते हुए बोली, ‘‘मोहन, तुम यहीं रुको, मैं अभी आई.’’

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