‘‘धन्य हो पंडितजी, आप के समधीजी भी हमारे जजमान हैं. उन के पूरे कुल खानदान के बारे में हम जानते हैं,’’ चुलबुल नाई की बात सुन पंडित दीनानाथ शुक्ल ठगे से रह गए. कहावत है कि ‘एक दिन घूरे के भी दिन फिरते हैं’, फिर भला पंडित दीनानाथ शुक्ल के दिन क्यों न फिरते. आखिर एक दिन उन की मनोकामना का सूरज अनायास ही चमक उठा. लेकिन चुलबुल नाई ने राज की जो परतें उखाड़ीं उस से दीनानाथ शुक्ल की सारी खुशी काफूर हो गई.

कोयला उद्योग की इस नगरी में कोयला की दलाली में हाथ काले नहीं होते, बल्कि सुनहले हो जाते हैं. यह यथार्थ यत्रतत्रसर्वत्र दृष्टिगोचर होता हैं. ऐसे ही सुनहले हाथों वाले पंडित दीनानाथ शुक्ल के चंद वर्षों में ही समृद्ध बन जाने का इतिहास जहां जनचर्चाओं का विषय रहता है वहीं दीनानाथ से पंडित दीनानाथ शुक्ल बनने की उन की कहानी भी कहींकहीं कुछ बुजुर्गों द्वारा आपस में कहीसुनी जाती है और वह भी दबी जबान व दबे कान से. दरअसल, पंडित दीनानाथ शुक्ल सिर्फ समृद्ध ही नहीं हैं, बल्कि प्रभावशाली भी हैं. क्षेत्र एवं प्रदेश की बड़ी से बड़ी राजनीतिक हस्तियों तक उन की पहुंच है. ऐसी स्थिति में भला किस की मजाल कि उन से पंगा ले कर अपनी खाट खड़ी करवाए.

इन सब के बावजूद, क्षेत्र का कट्टर ब्राह्मण समाज उन से सामाजिक संबंध बनाने में एक दूरी रख कर ही चलता है. कट्टर बुजुर्ग ब्राह्मण परस्पर चर्चा करते हुए कभीकभी बड़बड़ा कर कह ही उठते हैं, ‘ससुर कहीं के, न कुलगोत्र का पता न रिश्तेदारी का, न जाने कइसे ये दीनानथवा बन बइठा पंडित दीनानाथ शुकुल.’ जबकि पंडित दीनानाथ शुक्ल बराबर इस प्रयास में रहते कि वे और उन का परिवार इस क्षेत्र के अधिक से अधिक प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवारों एवं ब्राह्मण समाज में घुलमिल जाए.

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