लाइन औफ कंट्रोल के पास राजपूताना राइफल का हैडक्वार्टर. रैजिमैंट के सारे अफसर मीटिंगरूम में  थे. कमांडिंग अफसर कर्नल अमरीक सिंह समेत सभी के चेहरों पर आक्रोश और गुस्सा था. कुछ देर कर्नल साहब चुप रहे, फिर बोले, स्वर में अत्यंत तीखापन था, ‘‘आप सब जानते हैं, दुश्मन ने हमारे 2 जवानों के साथ क्या किया. एक का गला काट दिया, दूसरे का गला काट कर अपने साथ ले गए.’’

‘‘हां साहबजी, इस का जवाब दिया जाना चाहिए,’’ सूबेदार मेजर सुमेर सिंह गुस्से और आक्रोश के कारण आगे और कुछ बोल नहीं पाए.

‘‘हां, सूबेदार मेजर साहब, जवाब दिया जाना चाहिए, जवाब देना होगा. दुश्मनदेश को प्यार और शब्दों की भाषा समझ नहीं आती है. जो वह कर सकता है, उसे हम और भी अच्छे ढंग से कर सकते हैं. जान का बदला जान और सिर का बदला सिर,’’ सैकंड इन कमांड लैफ्टिनैंट कर्नल दीपक कुमार ने कहा.

‘‘हां सर, जान का बदला जान, सिर का बदला सिर. दुश्मन शायद यही भाषा समझता है. कैसी हैरानी है, सर, एक आतंकवादी मारा जाता है तो सारे मानवाधिकार वाले, एनजीओ और सरकार तक सेना के खिलाफ बोलने लगते हैं. जवानों के गले काटे जा रहे हैं, वे शहीद हो रहे हैं. कोई मानवाधिकार वाला नहीं बोलता.

‘‘पत्थरबाज हमारे जवानों को थप्पड़ मारते हैं. हाथ में राइफल और गोलियां होते हुए भी वे कुछ नहीं कर पाते क्योंकि उन को कुछ न करने का आदेश होता है. उन को आत्मरक्षा में भी गोली चलाने का हुक्म नहीं होता. क्यों? तब ये मानवाधिकार वाले कहां मर जाते हैं? कहां मर जाते हैं एनजीओ वाले और सरकार? और एक अफसर किसी पत्थरबाज को जीप के आगे बांध कर 10 सिविलियन को बचा ले जाता है तो उस के खिलाफ एफआईआर दर्ज होती है,’’ मेजर रंजीत सिंह ने कहा, ‘‘बस सर, हमें जवाब देना है. हमें आदेश चाहिए.’’

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