इधरउधर नजरें घुमा कर अनंत देसाई ने आफिस का मुआयना किया. उन्होंने आज ही अखबार के आधे पृष्ठ का रंगीन विज्ञापन देखा था. डेल्टा इन्फोसिस प्राइवेट लिमिटेड का नाम इस विज्ञापन में देख कर और उस की बारीकियां पढ़ कर देसाईजी ने चैन की सांस ली थी कि चलो, बेटे रोहित का कहीं तो ठिकाना हो सकता है. नौकरियां नहीं हैं तो क्या इस एम.एन.सी. (मल्टीनेशनल कंपनी) कल्चर ने रोजीरोटी के कुछ और रास्ते निकाल ही दिए हैं. उन से बेटे का हताशनिराश चेहरा अब और नहीं देखा जा रहा था.

रोहित एम.सी.ए. करने के बाद एक कंप्यूटर कंपनी की सेल्स मार्केटिंग में लगा हुआ था. सुबह 8 बजे का निकला रात के 8 बजे ही घर आ पाता था. धूप हो, बारिश हो या तबीयत खराब हो, वह छुट्टी की बात सोच भी नहीं सकता था, उस पर वेतन 2,500 रुपए.

अपने जहीन बेटे की ज्ंिदगी को 2,500 रुपए में गिरवी पड़ी देख कर अनंत देसाई को भारी छटपटाहट होती थी. उन्होंने एक दिन गुस्से में कहा भी था, ‘‘यह नौकरी छोड़ क्यों नहीं देते?’’

रोहित ने लाचारी से आंखें उठाई थीं, ‘‘यह नौकरी छोड़ भी दूं तो करूंगा क्या? आप तो देख रहे हैं कि 2 वर्ष से लिखित परीक्षा पास कर के भी साक्षात्कार में मात खा रहा हूं. नौकरी हथिया लेता है कोई सिफारिशी लड़का या लड़की.’’

‘‘उच्च तकनीकी शिक्षा ले कर भी बाजार में नौकरी के लिए मारेमारे घूमते हो यह मुझ से देखा नहीं जाता है.’’

‘‘पापा, और रास्ता भी क्या है?’’ कह कर रोहित मायूस हो गया था.

अभी उसे नौकरी करते 5 महीने ही बीते थे कि रोहित बारबार बीमार पड़ने लगा जिस का असर उस के काम पर भी पड़ रहा था. इस से पहले कि

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