लेखक- हीरा लाल मिश्र
कदमों के लड़खड़ाने और कुंडी खटखटाने की आवाज सुन कर मालती चौकन्नी हो उठी और बड़बड़ाई, ‘‘आज फिर...?’’
आंखों में नींद तो थी ही नहीं. झटपट दरवाजा खोला. तेजा को दुख और नफरत से ताकते हुए वह बुदबुदाई, ‘‘क्या करूं? इन का इस शराब से पिंड छूटे तो कैसे?’’
‘‘ऐसे क्या ताक रही है? मैं... कोई तमाशा हूं क्या...? क्या... मैं... कोई भूत हूं?’’ तेजा बहकती आवाज में बड़बड़ाया.
‘‘नहीं, कुछ नहीं...’’ कुछ कदम पीछे हट कर मालती बोली.
‘‘तो फिर... एं... तमाशा ही हूं... न? बोलती... क्यों नहीं...? ’’ कहता हुआ तेजा धड़ाम से सामने रखी चौकी पर पसर गया.
मालती झटपट रसोईघर से एक गिलास पानी ले आई.
तेजा की ओर पानी का गिलास बढ़ा कर मालती बोली, ‘‘लो, पानी पी लो.’’
‘‘पी... लो? पी कर तो आया हूं... कितना... पी लूं? अपने पैसे से पीया... अकबर ने भी पिला दी... अब तुम भी पिलाने... चली हो...’’
मालती कुछ बोलती कि तेजा ने उस के हाथ से गिलास झपट कर दीवार पर पटकते हुए चिल्लाया, ‘‘मजाक करती है...एं... मजाक करती है मुझ से... पति के साथ... मजाक करती है. ...पानी... पानी... देती है,’’ तेजा उठ कर मालती की ओर बढ़ा.
मालती सहम कर पीछे हटी ही थी कि तेजा डगमगाता हुआ सामने की मेज से जा टकराया. मेज एक तरफ उलट गई. मेज पर रखा सारा सामान जोर की आवाज के साथ नीचे बिखर गया. खुद उस का सिर दीवार से जा टकराया और गुस्से में बड़बड़ाता हुआ वह मालती की ओर झपट पड़ा.
मालती को सामने न पा कर तेजा फर्श पर बैठ कर फूटफूट कर रोने लगा.
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