बिजली के नियमित कनैक्शन न होने के कारण मेन सड़क पर से गुजरते हाईटैंशन तार से बिजली चुराई जाती थी. मोबाइल फोन तो खैर हर छोटेबड़े के हाथ में था ही. प्रगति के नाम पर क्या ये कम था, चाहे जगहजगह कचरे के ढेर और कच्ची गलियों में जमा कीचड़ व मच्छरों की भरमार क्यों न हो. खुली नालियों में शौच करते बच्चों पर भी किसी को एतराज न था. सामुदायिक नल के काई जमे चबूतरे पर पानी भरने के इंतजार में लड़तीझगड़ती औरतों के पास फुरसत ही कहां थी वहां की गंदगी साफ करने की. मर्द चाहे निठल्ले हों या कामगार, शाम होते ही दारू के अड्डे पर जमा हो कर पीनापिलाना, औरतों पर फिकरे कसना और मारकुटाई, गालीगलौज करना उन का प्रिय टाइमपास था. बचीखुची मर्दानगी घर पहुंच कर औरतों को पीटने में खर्च होती. बच्चों को इन लोगों ने सरकारी स्कूलों में तो डाल रखा था पर उस का कारण शिक्षा के प्रति जागरूकता कतई न था. सरकार की ओर से हर विद्यार्थी को छात्रवृत्ति मिलती थी और किताबें मुफ्त बांटी जाती थीं. स्कूल में मिलने वाला भोजन भी बच्चों को वहां भेजने के मुख्य कारणों में से एक था.
जितना बुरा हाल उस बस्ती का था, उतनी ही दृढ़ता से सुरभि ने निश्चय कर लिया उसे सुधारने का. मास्टरजी का उसे पूरा सहयोग मिला. सब से पहले दोनों कई संबंधित अधिकारियों से मिले. कई दफ्तरों के चक्कर काटे. इलाके के विधायक से भी मिले. सब को उन्होंने बस्ती की दुर्दशा और अपने प्रोजैक्ट के विषय में बताया. सर्वोदय विद्यालय के प्रधानाध्यापक से भी मिले और वहां रात्रिकालीन प्रौढ़ शिक्षा केंद्र शुरू करने का प्रबंध किया. लोगों को केंद्र पर आने के लिए आकर्षित करने के लिए सुरभि ने एक अनूठा कार्यक्रम बनाया. वह यूनिवर्सिटी के टैली कम्यूनिकेशन ऐंड मल्टीमीडिया विभाग के डीन से मिली और उन्हें अपना प्रोजैक्ट समझा कर उन से सहायता मांगी.