लेखक- स्निग्धा श्रीवास्तव

‘अंजली, तुम से आखिरी बार पूछ रही हूं, तुम मेरे साथ साइबर कैफे चल रही हो या नहीं?’ लहर ने जोर दे कर पूछा.

अंजली झुंझला उठी, ‘नहीं चलूंगी, नहीं चलूंगी, और तुम भी मत जाओ. दिन में 4 घंटे बैठी थीं न वहां, वे क्या कम थे. महीना भर भी नहीं बचा है परीक्षा के लिए और तुम...’

‘रहने दो अपनी नसीहतें. मैं अकेली ही जा रही हूं,’ अंजली आगे कुछ कहती, इस से पहले लहर चली गई.

‘शायद इसीलिए प्यार को पागलपन कहते हैं. वाकई अंधे हो जाते हैं लोग प्यार में,’ अंजली ने मन ही मन सोचा. फिर वह नोट्स बनाने में जुट गई, पर मन था कि आज किसी विषय पर केंद्रित ही नहीं हो रहा था. उस ने घड़ी पर नजर डाली.  शाम के 6 बजने को थे. आज लहर की मम्मी से फिर झूठ बोलना पडे़गा. 4 दिन से लगातार लहर के घर से फोन आ रहा था, शाम 6 से 8 बजे तक का समय तय था, जब होस्टल में लड़कियों के घर वाले फोन कर सकते थे. लहर की गैरमौजूदगी में रूममेट के नाते अंजली को ही लहर की मम्मी को जवाब देना पड़ता था. कैसे कहती वह उन से कि लहर किसी कोचिंग क्लास में नहीं बल्कि साइबर कैफे में बैठी अपने किसी बौयफे्रंड से इंटरनेट पर चैट कर रही है, समय व पैसे के साथसाथ वह खुद को भी इस आग में होम करने पर तुली है.

आग ही तो है जो एक चैट की चिंगारी से सुलगतेसुलगते आज लपट का रूप ले बैठी है, जिस में लहर का झुलसना लगभग तय है.

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