लेखक- आदर्श मलगूरिया
स्मिता और दीपा मौल में बने सिनेमाहौल से निकलीं तो अंधेरा छा चुका था. दोनों को पिक्चर खूब पसंद आई थी. साइंस फिक्शन की पिक्चर थी. हीरो के साथ दूरदराज के किसी ग्रह पर भटकते, स्पोर्स पर बने तिलिस्मी महल में खलनायक के मशीनी दैत्यों से जूझते और मौत के चंगुल से निकलते हीरो को 3डी में देख कर स्मिता जैसे अपने को हीरो की प्रेमिका मान बैठी थी. बत्तियां जलीं तो उस के पांव यथार्थ के ठोस धरातल पर आ टिके. स्वप्न संसार जैसे कपूर सा उड़ गया.
स्मिता और दीपा सोच रही थीं कि अब टैक्सी के लिए देर तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी या फिर डलहौजी स्क्वेयर या मैट्रो तक पैदल चलना पड़ेगा. वह भी दूर ही था. ऊपर से काले बादल गहराते जा रहे थे. यदि कहीं तेज बारिश हो गई तो ट्रैफिक जाम हो जाएगा और फिर सड़कों पर जमे पानी के दर्पण में कितनी
देर तक भवनों, बत्तियों के प्रतिबिंब झिलमिलाते रहेंगे.
रात को देर से घर पहुंचने पर मौमडैड को ही नहीं बल्कि बिल्डिंग के गार्ड्स की तेज आंखों को भी कैफियत देनी पड़ेगी. स्मिता के मन में यही विचार घुमड़ रहे थे. उस की बिल्डिंग क्या थी, एक अंगरेजों के जमाने का खंडहर था जिस में 20 परिवार रहते थे. एक गार्ड जरूर रखा गया था ताकि चंदा मांगने वाले या पार्टी के लोगों को आने से रोका जा सके.
दीपा निश्चिंत हो कर 2 पैकेट मिक्स खरीद चुकी थी. एक पैकेट स्मिता की ओर बढ़ाती हुई वह हंस दी, ‘‘लो, यही चबा जब तक कार नहीं आती.’’