पेंट करवाने के लिए एक दिन दीपेश ने अपने कमरे की अलमारी खोली, तो कपड़े में लिपटी एक डायरी मिली. डायरी नीरा की थी. वे उसे खोल कर पढ़ने का लोभ छोड़ नहीं पाए. जैसेजैसे डायरी पढ़ते गए, नीरा का एक अलग ही स्वरूप उन के सामने आया था, एक कवयित्री का रूप. पूरी डायरी कविताओं से भरी पड़ी थी. एक कविता- ‘सुंदर मा झे घर’ की पंक्तियां थीं...
क्षितिज के उस पार की
सुखद सलोनी दुनिया को
लाना चाहती हूं...
एक सुंदर घर
बसाना चाहती हूं,
जहां तुम हो
जहां मैं हूं...
कविता लिखने की तिथि देखी तो विवाह की तिथि से एक माह बाद की थी. दीपेश ने पूरी डायरी पढ़ ली तथा उसी समय नीरा की कविताओं का संकलन करवाने का निश्चय कर लिया. एक महीने के अधिक परिश्रम के बाद दीपेश ने नीरा की चुनी हुई कविताओं को संकलित कर पुस्तक के रूप में प्रकाशित करवाने के लिए प्रकाशक को दे दी थीं.
अचानक बज उठी फोन की घंटी ने उन की विचार तंद्रा को भंग किया. नितिन का फोन था, ‘‘पापा, आप कैसे हैं? अपनी दवाइयां ठीक से लेते रहिएगा. आप हमारे पास आ जाइए. आप के अकेले रहने से हमें चिंता रहती है.’’
‘‘बेटा, मैं ठीक हूं. तुम चिंता मत किया करो. वैसे भी, मैं तुम से दूर कहां हूं जब भी इच्छा होगी, मैं आ जाऊंगा.’’
बच्चों की चिंता जायज थी. लेकिन वे इस घर को कैसे छोड़ कर जा सकते हैं जिस की एकएक वस्तु में खट्टीमीठी यादें दफन हैं, साथ गुजारे पलों का लेखाजोखा है. एकदो बार बच्चों के आग्रह पर दीपेश उन के साथ गए भी लेकिन कुछ दिनों बाद ही उन के बरामदे से दिखते अनोखे सूर्यास्त की सुखदसलोनी लालिमा का आकर्षण उन्हें इस घर में खींच लाता था. वह उन की प्रेरणास्रोत थी. उसी से उन्होंने जीवनदर्शन पाया था कि जीवन भले ही समाप्त हो रहा हो लेकिन आस कभी नहीं खोनी चाहिए क्योंकि प्रत्येक अवसान के बाद सुबह होती है और इसी सत्य पर इन की कितनी ही रचनाओं का जन्म यहीं इसी कुरसी पर बैठेबैठे हुआ था.