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जैसी कि उम्मीद थी, शाम को पटना एयरपोर्ट पर एयरबस के उतरते ही उस ने चैन की सांस ली. मगर अभी तो बस शुरुआत थी. आगे के झंझावातों को भी तो उसे झेलना था. पंकज शर्मा की डेड बौडी भी इसी फ्लाइट से आई थी. और उसी के साथ उसे भी गांव  जाना था. पहली बार वह विमान पर चढ़ा था. मगर पहली बार फ्लाइट पर जाने का उसे कोई रोमांच या खुशी नहीं थी.

पंकज एक शिपिंग कंपनी में मैरीन इंजीनियर थे और उन की अच्छीभली स्थायी नौकरी और तनख्वाह थी. फिर उन के परिवार वाले संपन्न किसान भी थे. उन्होंने ही अपने खर्च पर पंकज शर्मा के शव को यहां मंगवाया था कि उन का दाह संस्कार अपने ही गांव में हो. और इसी बहाने वह भी साथ आ गया था.

पंकज शर्मा के बड़े भाई और उन के दो भतीजे भी साथ थे. संभवतः वे वहीं समस्तीपुर से ही एम्बुलेंस की व्यवस्था कर पटना एयरपोर्ट आए थे.

कोरोना के चक्कर में इस समय औक्सीजन और दवाओं के साथ अस्पतालों में बेड व एम्बुलेंस के लिए भी तो मारामारी थी.

कोरोना की जांच और दूसरी सुरक्षा जांच संबंधी औपचारिकताओं को पूरा करने में ही एक घंटा खर्च हो गया था. फिर बाहर निकलते ही पंकज शर्मा की डेड बौडी को एम्बुलेंस की छत पर रख कर बांधा जाने लगा. वह चुपचाप सारी गतिविधियां देखता रहा. उन का 16 साल का बेटा अनूप  अभी भी फूटफूट कर रो रहा था. उन के बड़े भाई नारायण की भी आंखें नम थीं.

पंकज शर्मा का भतीजा आलोक उसी की हमउम्र था और सभी कामों में काफी तत्परता दिखा रहा था.

वैसे तो आलोक मैट्रिक तक उसी का क्लासमेट था. वह उस के स्वभाव को जानता था कि वह कितना कामचोर और आलसी है. मगर आज उस की काम के प्रति तेजी देखते ही बनती थी. सच है, समय व्यक्ति को किस तरह बदल कर रख देता है.

“अब खड़े क्या हो राजन, आगे जा कर बैठ जाओ,” आलोक बोला, “हम अभी चलेंगे तो शाम के 7 बजे तक समस्तीपुर पहुंच
पाएंगे. फिर वहां से अपने गांव गणेशी पहुंचने में कितनी देर लगेगी.”

वह चुपचाप ड्राइवर की बगल वाली सीट पर जा कर बैठ गया.

एम्बुलेंस अपने गंतव्य की ओर दौड़ चली थी.

लौकडाउन की वजह से सड़कें शांत थीं. पटना के हर प्रमुख चौराहे पर गश्ती पुलिस का पहरा था. वहां यह बताते ही कि वह एयरपोर्ट से आ रहे हैं, कोई कुछ कहता नहीं था. गंगा सेतु पार करते ही एम्बुलेंस पूरी रफ्तार में आ गई थी.

6 बजे तक वह समस्तीपुर में थे. वहां भी हर गलीचौराहे पर लौकडाउन की वजह से पुलिस का पहरा था. साढ़े 6 बजे तक वह अब अपने गणेशी गांव में थे और अब एम्बुलेंस ‘शर्मा भवन’ के आगे खड़ी थी.

एम्बुलेंस देखते ही पंकज शर्मा की पत्नी चित्कार मार बाहर निकली और उस के आगे पछाड़ खा कर गिर पड़ी. मां और बहन अलग दहाड़ें मार कर रो रहे थे.

सबकुछ जैसे तैयार ही था. दरवाजे पर घंटेभर के लिए शव को रखा गया था और लोग मुंह पर मास्क लगाए अंतिम दर्शनों के लिए आजा रहे थे. वह चुपचाप अपना बैग संभाले खड़ा रहा. छोटा भाई माखन आया और उस का बैग लेते हुए बोला, “अब घर चलिए भैया. मां इंतजार कर रही हैं तुम्हारा.”

“अंत्येष्टि पूरी होने के बाद घर जाते हुए,” उस ने जैसे खुद से कहा, “गांव तो आ ही गया हूं. थोड़ी देर और सही…”

“अभी यहां की औपचारिकताएं पूरी होने में देर तो लगेगी ही,” आलोक उस के असमंजस और कशमकश को देखते हुए बोला, “नहीं राजन, तुम घर हो आओ. तुम भी काफी थक गए हो. मैं समझ सकता हूं. जब हम मुक्तिधाम को चलेंगे, उसी समय आ जाना.”

उसे देखते ही मां उस से चिपट कर रोने लगी, “मैं तो समझी कि सारा खेल खत्म हो गया. यह मेरे किसी पुण्य का प्रताप है कि तुम बच कर आ गए राजू. मेरा पुनर्जन्म हुआ है. सालभर पहले ही तुम्हारे पिता का देहांत हुआ था. कितनी मुश्किल से खुद को सम्हाला है मैं ने.”

“अब बीती बातों को छोड़ो मां,” उस की भी आंख भर आई थी, “क्या करता, बाबूजी के जाने के बाद घर में एक चवन्नी तक नहीं थी. उलटे उन के श्राद्धकर्म के नाम पर बिरादरी वालों ने कर्ज का पहाड़ चढ़ा दिया था. उसे उतारने के लिए ही तो मुझे मुंबई जाना पड़ गया.”

“मगर, लौटे तो किस हालत में…” मां रोते हुए कह रही थी, “अगर तुम्हें कुछ हो जाता, तो मैं तो जीतेजी मर जाती.”

“अब ये बातें छोड़ो मां,” वह बोला, “पंकज शर्मा की अंत्येष्टि के लिए मुझे जाना ही होगा. यह उन का ही अहसान है कि मैं कुछ कमाने लायक बन पाया हूं.”

माखन ने बाहर ही एक बालटी पानी और मग रख ला कर दिया था. वह वहीं अपने कपड़े उतार कर हाथमुंह धोने लगा था.

“भैया, आप नहा लीजिए. दिनभर से आप दौड़धूप कर रहे होगे. नहाने से थोड़ी थकान मिट जाएगी. गरमी बहुत है. मैं एक बालटी पानी और ला देता हूं.”

उस ने लगे हाथ नहा लेना ही ठीक समझा. मई का मौसम वैसे ही गरमी का है. थोड़ी तो राहत मिलेगी.

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