बाहर ही चौकी रखी थी. गरमियों में आमतौर पर बिहार में चौकीखाट वगैरह रात में पुरुषोंबच्चों के सोने के लिए निकाल दिए जाते हैं. वह वहीं आराम से बैठ गया. मां उस पर ताड़ के पत्तों से पंखे की तरह झलने लगी.
नहाने के बाद मां ने उसे चाय का गिलास और घर के बने नमकीन की तश्तरी उस के आगे धर दी थी. दोनों छोटे भाईबहन भी वहीं आ कर बैठ गए थे. उस ने जल्दीजल्दी चाय पी और नमकीन खत्म कर बोला, “शर्माजी के घर हो कर आता हूं. तुम इंतजार करना. जल्दी ही लौट आऊंगा.”
रात लगभग 9 बजे अर्थी उठी और वह भी सभी के साथ श्मशान घाट तक गया. दाह संस्कार के बीच वह जैसे शून्य में खोया सा था कि तभी आलोक आ कर उस से बोला, “राजू भाई, यह अचानक क्या हो गया?”
“क्या कहूं आलोक,” वह फफकफफक कर रो पड़ा, “मृत्यु नजदीक थी. कुछ को मुक्ति मिल गई. कुछ हमारे जैसे लोग भारतीय नौसेना की वजह से बच गए.”
“अब जो होना था, हो ही गया,” आलोक उसे सांत्वना देते हुए कहने लगा, “कुछकुछ जानकारी हमें भी हुई है. तुम बहुत थके हो और परेशान भी रहे. अब घर लौट जाओ. यहां हम कई लोग हैं देखने के लिए.”
उस के मन में वापस लौटने की इच्छा थी, मगर वह संकोचवश उठ नहीं रहा था. भारी मन लिए वह वहां से उठा और घर चला आया.
एक बार पुनः स्नान कर वह ताजातरीन हुआ और बेमन से खाना वगैरह खा कर बाहर बिछी चौकी पर लेट गया. छोटा भाई आ कर पैर दबाने लगा. उस ने उसे मना किया, तो वह मनुहार भरे स्वर में बोला, “इसी बहाने तुम्हारे पास हूं भैया. यहां मां और दीदी कितना रोती हैं.”
“क्योंक्यों, क्या बात हुई?” वह उठ कर बैठ गया, “फिर तुम तो घर पर ही हो.”
“मगर, मैं क्या कर सकता हूं. मैं तो बहुत छोटा हूं,” वह सुबकता हुआ बोला, “एक तो तुम इतनी दूर चले गए. उस पर ये तूफान वाला हादसा हुआ तो हम बहुत डर गए.”
“डरने की कोई बात नहीं. मैं हूं ना. अब बाहर नहीं जाता तो घर के खर्चे कैसे चलते?” वह उसे समझाते हुए बोला, “अब तुम जाओ. रात बहुत हो गई है इसलिए जा कर सो जाओ. मुझे भी नींद आ रही है. कल ढेर सारी बातें करूंगा.”
“नहीं, मैं तुम्हारे साथ ही सोऊंगा.”
“ठीक है, सो जा,” उस ने उसे अपने बगल में सुलाते हुए कहा.
अब वह सोने का प्रयास करने लगा था, मगर नींद अब आंखों से कोसों दूर थी. ऊपर आसमान तारों से सजा था, जिसे वह निहार रहा था. वह उन में कहीं पंकज शर्मा को खोज रहा था शायद, कि उसे अपने दिवंगत पिता की याद आ गई.
विगत वर्ष जब उस के पिता का देहांत हुआ था तो इसी प्रकार के भयावह शून्य को देख कर घबराया था. उन के अंतिम क्रिया संपन्न होने के बाद समस्या यह थी कि अब रोजमर्रा के खर्चे कैसे चलेंगे. तिस पर बिरादरी वालों ने श्राद्ध के नाम से अलग शाहीखर्च करा उस के घर को कर्ज में डुबा गए थे. उस की भी उसे भरपाई करनी थी. थोड़ी सी खेती थी. दरअसल, उसी पर सभी की दृष्टि लगी थी. मगर मां उसे किसी भी कीमत पर बेचने को तैयार नहीं थी. बहुत
उस ने भागदौड़ की. उस ने 3 साल पहले ही आईटीआई से वेल्डर का सर्टिफिकेट हासिल कर लिया था. मगर सरकारी तो दूर, कोई प्राइवेट नौकरी भी उसे नहीं मिल रही थी. वह वहीं समस्तीपुर में एक ग्रिल बनाने वाली दुकान में बतौर वेल्डर लग गया था कि घर बैठने से अच्छा है कि कुछ किया जाए. इस से काम में हाथ भी साफ रहता और परिपक्वता भी आती.
उन्हीं दिनों पंकज शर्मा छठ त्योहार के अवसर पर घर आए थे. वह मुंबई में किसी शिपिंग कंपनी में मैरीन इंजीनियर के अच्छे पद परथे. एक दिन वह किसी काम के सिलसिले में उन के छोटे भाई आलोक से मिलने गया, तो उस से भेंट हो गई. वह उस के घर का हालचाल पूछने लगे, तो जैसे दिल का दर्द बाहर उमड़ आया, “आप से कुछ छुपा तो है नहीं. दानेदाने तक के लिए मोहताज थे हम. तभी मैं समस्तीपुर में उस ग्रिल बनाने वाली दुकान पर जाने लगा. इस लौकडाउन में तो हमारी क्या, सभी की हालत खराब रही. वे बस कुछ खानेपीने भर को दे देते हैं. छोटे भाई को अगले साल बारहवीं की परीक्षा देनी है. पता नहीं, वह पैसों के चलते फार्म भर पाएगा कि नहीं. वह इसीलिए विक्षिप्त सा हो रहा है. छोटी बहन को भी दसवीं की परीक्षा देनी है. उस की पढ़ाई में कुछ खर्च तो होता नहीं, मगर भोजनपानी तो चाहिए ही चाहिए ना. उधर हमारी थोड़ी सी बची जमीन पर गिद्धदृष्टि लगाए बैठे हैं. वो कैसे बचेगी, और बड़ी बात यह कि हम कैसे बचें, समझ नहीं पाता हूं.
“आप तो मुंबई में अच्छे पद पर हैं. वहां कुछ जुगाड़ हो पाता मेरा तो बहुत अच्छा रहता. मुमकिन हो तो आप अपनी शिपिंग कंपनी में ही मुझे रखवा लें.”
“अरे, मैं भी तो उस कंपनी में मुलाजिम ही हूं,” कहते हुए वह जोरों से हंसे थे, “मैं वहां क्या कर सकता हूं…?”
थोड़ी देर ठहर कर कुछ याद करते हुए से वह बोले, “तुम ने वेल्डिंग ट्रेड से आईटीआई पास किया है ना. कैसा काम है तुम्हारा?”
“अब मैं अपने मुंह से अपनी प्रशंसा क्या करूं. मैं जिस दुकान में काम करता हूं, उन्हीं से पूछ लीजिएगा. इस फिनिशिंग से काम करता हूं कि सभी मेरी वेल्डिंग की प्रशंसा करते हैं.”
“मैं जिस जहाज पर काम करता हूं, उस के कैप्टन ने मुझ से किसी अच्छे वेल्डर के बारे में बात की थी. मगर भाई, सागर में जहाज की नौकरी रहेगी. पता नहीं, तुम्हें पसंद आए या नहीं? वैसे, पैसे अच्छे मिलेंगे. संभवतः 20,000 रुपए महीने के दें.”
उस ने उन के पैर पकड़ लिए थे, “मुझे मंजूर है, समुद्र के जहाज पर रहना. कम से कम मेरी मां तो ठीक से रहेगी. भाईबहन थोड़ी पढ़ाई तो कर पाएंगे. आप मुझे साथ ले चलिए.”
और इस प्रकार वह पंकज शर्मा के साथ मुंबई आ गया था. वहां पहले उसे शिपिंग कंपनी के तकनीकी विभाग में रखा गया. फिर वह जहाजों पर ही काम करने लगा था. कैसा नीरस जीवन था यहां का. समुद्र तट से सैकड़ों मील दूर स्थित जहाजों में टूटफूट होती रहती थी और उस के साथ ही मरम्मत का काम भी चलता था. चूंकि जहाज लोहेइस्पात के ही बने होते हैं. और इस के लिए कुशल तकनीशियनों की जरूरत पड़ती ही थी. शीघ्र ही उस ने अपने काम से सभी का दिल जीत लिया था.
पंकज शर्मा का जीवन तो समुद्र में खड़े जहाजों के बीच ही गुजरता था. फिर भी उन्होंने मुंबई के उपनगर अंधेरी में एक कमरा ले रखा था. वेतन मिलते ही वह वहां जाते और कुछ आवश्यक खरीदारी के साथ घर पैसा भेज देते थे. अगले माह जब वेतन मिला, तो वह उसे भी साथ ले गए.