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 दिल की कोमल नंदिनी थिएटर आर्टिस्ट थी. नंदिनी का थिएटर में काम करना पति रूपेश को पसंद नहीं था. एक दिन रिहर्सल के दौरान देर हो गई. घर जाने के लिए बस नहीं मिली तो उस के साथ काम करने वाला प्रीतम अपने स्कूटर पर उसे घर तक छोड़ने गया. घर पर उस का पति रूपेश गुस्से से भरा बैठा उस का इंतजार कर रहा था, जिस ने उसे खूब खरीखोटी सुनाई. रूपेश उसे बहुत कष्ट देता था. सास की मृत्यु के बाद घर में बूआ सास की हुकूमत चलती थी, जिस की खुद की जिंदगी काफी संघर्ष से बीती थी.

अभाव में पलीबढ़ी जिंदगी से बूआ सास हमेशा नकारात्मक सोच ही रखती थीं, जिस का प्रतिबिंब पति रूपेश पर भी गहरा पड़ा था.

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ज्योत्सना की खिलीखिली अनुभूतियां कितनी ही रातें नंदिनी को आसमान की सैर करा देती थीं, मगर आज रिसते दर्द पर शूल सा चुभ रहा था यह चांद. भूखीप्यासी वह तंद्राच्छन्न होने लगी ही थी कि अचानक लड़ाकू सैनिक सा रूपेश कमरे में आ धमका. बत्ती जला दी उस ने. वितृष्णा और प्रतिशोध से धधकते रूपेश को नंदिनी की शीलहीनता और कृतध्नता ही दिखाई देने लगी थी.

टूटी, तड़पती नंदिनी उठ कर बिस्तर पर बैठ गई.

‘‘महारानी इधर आराम फरमा रही हैं... यह नहीं कि देखे बूआ सास और पति को क्या दिक्कतें हैं? बहुत सह ली मैं ने तुम्हारी मनमानी... बूआ ने सही चेताया है... ब्राह्मण परिवार की बहू को पराए मर्दों के साथ हजारों लोगों के सामने नौटंकी कराना हमारी बिरादरी में नहीं सुहाता. हमारे घर बेटी है. कभी बेटी की फिक्र भी करती हो? तुम्हारे 4-5 हजार रुपयों से हमें कोई फर्क नहीं पड़ने वाला... सोच लो वरना चली जाना हमेशा के लिए.’’

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