जाति के साथ अपने नाम की पुकार सुन कर निरपत चौंका. हड़बड़ा कर घर से बाहर निकला तो देखा, सामने एक व्यक्ति सफेद पायजामा और मोटे कपड़े का लंबा कुरता पहने खड़ा मुसकरा रहा था, जिस के माथे पर लंबा तिलक था. उड़ती धूल व लूलपट से बचाव के लिए उस ने सिर और कानों पर कपड़ा लपेट रखा था. निरपत उसे अचंभे से देख ही रहा था कि उस ने भौंहें उठाते हुए पूछ लिया, ‘‘आप ही निरपतलाल हैं न, दिवंगत सरजू के सुपुत्र?’’
‘‘हां, मगर मैं ने आप को पहचाना नहीं.’’
‘‘अरे, नहीं पहचाना,’’ उस का स्वर व्यंग्यात्मक था.
निरपत अनभिज्ञ सा उसे देखता रह गया. उलझन में पड़ गया कि कौन हो सकता है, जो घर के सामने खड़ा हो कर बड़े अधिकार से उस का और पिताजी का नाम ले रहा है.
‘‘आश्चर्य है निरपतलाल, कि आप इतनी जल्दी भूल गए, प्रयाग जा कर कुछ संकल्प किया था कभी आप ने?’’ तंज सा कसते हुए उस ने सिर पर बांधा कपड़ा खोल दिया.
उस का चेहरा देखते ही निरपत को याद आ गया. पंडे, झंडे, नाई, नावें, श्रद्धानत भीड़ और भी बहुतकुछ. पिछले शुरुआती जाड़े की ही तो बात है, 6 महीने भी नहीं हुए होंगे. वह पिता के फूल विसर्जित करने गया था. साथ में मां के अलावा 2 रिश्तेदार भी थे.
भोर में ट्रेन जैसे ही नैनी स्टेशन पर रुकी तो पुलिस वालों की तरह संदिग्ध की तलाश सी करते हुए कई लोग ट्रेन में चढ़ आए थे और उस का घुटा सिर देखते हुए बारीबारी से पूछ लेते थे कि कहां के रहने वाले हो, किस जाति के हो. यह व्यक्ति जवाब पाने के बाद ठहर गया और सफेद कपड़े में बंधी मटकी देखते हुए बोला, ‘आप हमारे ही यजमान हैं. अब आप को किसी की बातों में आने की जरूरत नहीं और न कहीं भटकने की जरूरत है. अपना सामान समेट लीजिए अगला स्टेशन आने में देर नहीं है.’