महिलाओंके फैशन परेड शो देख कर न जाने क्यों मुझे अपने अर्थात मनुष्य के पूर्वज (आदिमानव) याद आने लगते हैं, क्योंकि दोनों में नग्नता का फर्क 19-20 का ही रह जाता है. कुछ समय के लिए सुंदर अर्धनग्न बालाओं के स्थान पर मुझे रैंप पर आदिमानव कैट वाक करते नजर आने लगते हैं. वाह, आदिमानव का कैट वाक करते हुए क्या धांसू दृश्य आंखों के सामने उपस्थित हो जाता है.

ऐसा धांसू दृश्य देख कर मुझे लगने लगता है कि कहीं इतिहास अपने को दोहराने की तैयारी तो नहीं कर रहा है? कहीं लाखों सालों तक आदिमानव के नग्न रहने की अवस्था आधुनिक मानव पर हावी तो नहीं हो रही?

यूरोप के स्त्रीपुरुषों को समुद्र तटों पर सनबाथ करते देख कर तो मेरी इस धारणा को बल मिलता ही है.

वैसे मनुष्य के नग्न रहने की दमित इच्छा तो सर्वव्यापक और सर्वकालीन है. किसी मुंबइया फिल्म का सब से जबरदस्त गाना क्या वह नहीं हो जाता है, जिस में अभिनेत्री या आइटम डांसर नाचतेगाते लगभग नग्न हो जाती है? पुराने लोगों से पूछिए कि उन्हें हैलेन पर फिल्माया गया कौन सा गाना अभी तक याद है. झट से जवाब मिलेगा कि ख्वाबों की मैं शहजादी... उई... उई... उई... मैं... आई...

 

किसी राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय फिल्मी समारोह को देखिए. उस में उपस्थित  अभिनेत्रियां ऐसे अजीबोगरीब कपड़े पहन कर उपस्थित होती हैं कि उन की बांहें, जंघाएं और वक्ष लगभग अनावृत ही होते हैं. पीठ भी लगभग नग्न ही होती है. बाकी का हिस्सा भी पारदर्शी कपड़ों से ही ढका होता है, जिस में वास्तव में ढका हुआ कुछ भी नहीं होता और अब तो  फिल्मी मंचों पर ऐसी दुर्घटनाएं होने लगी हैं कि अंत:वस्त्र भी अचानक खुल कर मंच पर ही गिर जाते हैं. सिनेमाई भाषा में इस सब को ग्लैमर कहा जाता है. पता नहीं यह ग्लैमर का घेरा औरतों की देह के चारों ओर ही क्यों घूमता है?

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